Thursday, April 4, 2013

लुत्फ़ उठाओ प्रेम-रस का।




अंत कर दो द्वेष, भेद और नफ़रत के तमस का,
लुत्फ़ थोड़ा सा उठा के,  देखिये तो प्रेम-रस का।

हो प्रीत अर्पण में सराबोर, यह सृष्टि कण-कण,
पाले न कोई मन ज़रा,एक कतरा भी हबस का।

पुष्प देखो,बाँटे सुगंध, रहकर चुभन में शूल की,
देता पैगामें-मुहब्बत, आप व्यंजक है हरष का।

है यहाँ हर किसी का, दिल बेसबब उलझा हुआ,
तोड़ खुद ढूढना है, जिन्दगी की कशमकश का।

जब है नहीं कोई अविनाशी यहाँ, फिर डाह कैसी,
पल की खुद को खबर नहीं,सामान सौ बरस का।

करके पथ-प्रशस्त हो गई,  चाँद, तारों में पहुँच,
क्या नहीं इस जहां में,आदमी के अपने बस का।

प्रज्ञता नहीं है 'परचेत', दुर्बल समझना शत्रु को,
भेद बेहतर जानता है, रिपु हमारी नस-नस का।









छवि गूगल से साभार !










13 comments:

  1. पल की खुद को खबर नहीं,सामान सौ बरस का।........बहुत सच्‍ची पंक्तियां। बेहद गम्‍भीर भाव।

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  2. है यहाँ हर किसी का, दिल बेसबब उलझा हुआ,
    तोड़ खुद ढूढना है, जिन्दगी की कशमकश का।----
    बहुत खूब
    के सन्दर्भ की सुंदर रचना

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  3. वाह ...बहुत खूब


    पधारिये आजादी रो दीवानों: सागरमल गोपा (राजस्थानी कविता)

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  4. करके पथ-प्रशस्त हो गई, चाँद, तारों में पहुँच,
    क्या नहीं इस जहां में,आदमी के अपने बस का।....
    Koun rakh saka hai admi ko bas mein .... Khud ko jana nahi, pahunch hai chand taron mein ...

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  5. बहुत सुन्दर ग़ज़ल।

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  6. मनभावन और चारु!

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  7. करके पथ-प्रशस्त हो गई, चाँद, तारों में पहुँच,
    क्या नहीं इस जहां में,आदमी के अपने बस का।

    - हिम्मत करे इंसान तो क्या कर नहीं सकता!

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  8. बहुत ग़ज़ब पंक्तियाँ

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